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लेखनी प्रतियोगिता -14-Apr-2023- मेरी खुशियां लौटा दो मां

छोटे प्यारे सपने लेकर
मैं दुनिया में आया था।
बनूंगा तेरा राज दुलारा
मन में संकल्प उठाया था।

आंखें खोलते ही देखा तेरा चेहरा,
मन बहुत हर्षाया था।
मां को ही भगवान मान,
दिल के मंदिर में बिठाया था।

हर सांस में तुझे पूजता था,
हर लफ्ज़ में तेरा ही नाम लेता था।
बंद आंखों में भी बस
तेरे ही ख्वाब देखता था।

कैसा वो बचपन था
तुझसे ही मेरा हर दिन था।
तू ही मेरी सखा सहेली
तुझसे ही मेरा लड़कपन था।

बीत गया बचपन सारा
जवानी की दहलीज पर कदम रखा।
तेरी पलकों की छांव में
मैंने अपने भविष्य के सपनों का नीड़ रखा।

हर राज़ में तुझे अपना
साझेदार बनाया था।
दिलफेंक लड़कियों को
यूं ठेंगा दिखाया था।

खुद ना चुना कोई हमसफर
तेरी पसंद पर अपना विश्वास जताया था।
मेरी खुशियों की खातिर ही
तूने चांद को जमीन पर बुलाया था।

थी वो अजनबी लड़की
अल्हड़ और नादान सी।
अक्सर कर देती थी गलतियां
बिना किसी वजह के ही।

उसकी मासूम गलतियों को
मैंने कभी ना तूल दिया।
पता नहीं कैसे तेरी नज़रों में
चुभ वो एक शूल गया।

मैं हंसी खुशी, जीवन उसके साथ
बिताना चाहता था।
पर तेरे अंदर क्या चल रहा था
जो तुझे ना यह गवारा था।

दूसरों के बहकावे में आकर
ना जाने क्या तेरे मन में चला,
अपने जिगर के टुकड़े की खुशियों को
तूने खुद ही जला डाला।

एक वो पल था, जब मुझे खुश करने के लिए
तू हर पल मचलती थी।
मेरी उल्टी सीधी हरकतों पर
तू जान छिड़कती थी।

सारी - सारी रात जागकर
पालने में झुलाती थी।
मेरे इक सुकून की खातिर
दुख अपने बिसराती थी।

पता नहीं कलियुग ने
ऐसा क्या प्रपंच रचा।
तेरे दिल में मेरी खातिर
अब ना कोई प्यार बचा।

भगवान जाने कौन है वो मंथरा
जो तेरी मति फेरकर चली गई।
अपने बेटे की गृहस्थी
तू खुद अपने हाथों उजाड़ने लग गई।

मुझे बीच भंवर में खड़ा कर दिया,
चुन ले चाहे मां को अपनी या फिर अपनी प्रियतमा।

ऐसे कैसे मैं किसी एक का साथ चुन लूं
अपनी खुदगर्जी के चलते, दूसरे की उम्मीदों का गला घोंट दूं।

एक ने मुझे जन्म दिया,
दूसरी मुझ में समाई है।
दोनों के ही बगैर
मेरी जिंदगी में तन्हाई है।

ना चल पाऊंगा एक कदम भी
तेरी ममता की छांव बिना,
तेरी त्याग तपस्या से ही
मेरा यह शरीर बना।

हां मानता हूं कि वो एक अजनबी थी,
छोटी छोटी गलतियां करती थी।
पर मेरी मुस्कान की खातिर
जहर के घूंट भी पी लेती थी।

तेरी हर इक फटकार में भी
उसने अपना नसीब बुना,
मेरी चेहरे पर खुशी देखने के लिए
अकारण ही उसने तेरा ताना सुना।

ऐसी भी क्या वजह हो गई,
तू इतनी निर्दयी हो गई।
मूरत में भगवान पूजते,
तू खुद एक पत्थर की मूरत हो गई।

तुझे मैंने भगवान माना था,
हाथों में तेरे अपना सर्वस्व सौंपा था।

तू क्या थी मां, तू क्या हो गई।
गैरों की बातों में आकर, तेरी ममता खो गई।
आज मेरी ही हंसी तेरे कानों के लिए ज़हर हो गई।

हे ईश्वर, रसम तुझे है फरियाद लगाए,
दिखा दो सही राह मेरी मां को,
कहीं मेरा घरौंदा ना उजड़ जाए।।

      *****Samridhi Gupta 'रसम'*****


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4 Comments

Abhinav ji

15-Apr-2023 08:52 AM

Very nice 👍

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भावनात्मक और बहुत कुछ कहती हुई कविता

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अदिति झा

15-Apr-2023 01:06 AM

Nice 👍🏼

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